Thursday, December 27, 2012

एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन 
गिनते दिन पल छिन 
लौट कभी आएगा 
मन का जो मीत गया 
एक बरस बीत गया 

धीरे धीरे ये साल भी गुजर जाने की कगार पर है। 
वैसे तो गुजरते हुए हर एक लम्हें के साथ समय गुजरता ही जाता है 
पर जाने क्यों इन आखिरी दिनों में अपने जाने का बड़ा एहसास दिलाता है .
और फिर जाते हुए साल के साथ खोने पाने के लेखे जोखे सामने आने लगते हैं .
अच्छा जो बीता होगा  वो कपूर की तरह उड़ गया। जो बुरा था वो टीस बन सालता है .
ये साल मुझ से मेरा एक बहुत  अच्छा मित्र एक बहुत बेहतर, सरल इन्सान ले गया।
अनहोनी  जो घटी वो बहुत ही त्रासद है .
पहाड़ो में रहता था, मस्त अपनी वादियों में, 
प्रकृति में जीता था तो उतना ही निश्छल था 
जब गाता था तो कई बार  मैं सोचती थी 
कि जगजीत सिंह से ज्यादा मैं उससे सुनूँ 
पर क्या जानती थी कि एक एक कर दोनों ही चले जायेंगे .
चिठ्ठी न कोई सन्देश जाने वो कौन सा देश जहाँ तुम चले गए---

Thursday, October 4, 2012

संवेदनाओं का बाजारीकरण



मेरा पति बहुत शराब पीता है. फिर कभी कभी मुझे मारता भी  है. मैं अपने बेटे के साथ अब अपनी माँ के साथ रहती हूँ ....कहते कहते मंच पर वह महिला रोने लगती है..सामने hot sheet पर Mr Angry Young Man  बैठे हैं.. देखते रहते हैं उसको.. दर्शक उस महिला के दुःख से सहभागी होतें  हैं शायद ... और अगले ही पल कार्यक्रम आगे बड़ जाता है..इतना ही नहीं कार्यक्रम आने के पहले रोज़ दसिओं बार ये दृश्य परदे पर आता है. श्रोताओं  को रट जाता है...  इन दिनों छोटे परदे पर आने वाले life shows  में आये दिन ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं.. बहुत कुछ कर दिखाने वाला, बड़ी प्रतिभा का धनी किसी न किसी tragedy का शिकार होता है. उसके बस रोने की वजह होती है और वह मंच पर ही बड़ी अदा से अपने आसूं को पोछता है...बात यह नहीं की दुःख नहीं है. दुःख सब को है... दुःख कहीं भी हो सकता है..पर क्या उसका प्रगटीकरण इतना आसान है?  क्या आप कभी भी कहीं भी रो  देते हैं... मन के कोने में छुपी पीड़ा या टीस को बाहर लाने में खासी मेहनत लगती है... कोई बहुत अपना, जब स्नेह से भर कर पास बैठता है तब जा कर कहीं बांध टूटता है.. तब इन्सान कह कर रो कर हल्का हो लेता है और उसे फिर दर्द को सहने की ताकत आती है. पता नहीं इन shows के होस्ट को क्या जादू आता है कि ये किसी को भी रुला देते हैं . वाह रे!  संवेदनाओं का बाजारीकरण...अपना शो बढ़िया बनाने के लिए लोगों के ग़मों को ही बेच  डालते हैं.  खरीद फरोक्त कि इस दुनिया में इतनी तेजी से विकास हो रहा है कि मानव मन कि कोमल भावनाओ का मूल्य ही नहीं रहा..हमें तो ये पता था...
अच्छा सा कोई   मौसम तन्हा सा कोई आलम 
हर वक़्त का रोना तो वे वक़्त का रोना है.

Wednesday, September 26, 2012















प्रतिदान

चिड़िया ने
अपनी चोंच में
जितना समाया
उतना पिया
उतना ही लिया,
सागर में जल
खेतों में दाना
बहुत था।

चिड़िया ने
घोंसला बनाया इतना
जिसमें समा जाए
जीवन अपना
संसार बहुत बड़ा  था।

चिड़िया  ने रोज
एक गीत गाया
ऐसा जो
धरती और आकाद्गा
सब में समाया
चिड़िया ने सदा सिखाया
एक लेना
देना सवाया।
-मुनि क्षमासागरजी

Tuesday, September 18, 2012


         
बनता चुपचाप है 
बिगड़ता आवाज के साथ है 
जिन्दगी के इस दौर में 
बस आवाज़ ही आवाज़ है

Tuesday, September 11, 2012


अपने घर के गमले में खिल आये फूल, रंग बिरंगे अच्छे लगते हैं. उन्हें देख हम खुश होते हैं. फूल खिलें हम खुश हो जाएँ काम पूरा. कभी हमारे पास समय नहीं होता कि उन सुन्दर फूलों को खिलाने वाले पेड़ को जी भर के देखें, स्नेह और आभार से भर के. हम सब व्यस्त हैं!! भागने में ...जीवन की  दौड़ में .. पेड़ को देखेंगे तो समय बर्बाद हो जायेगा.. ये अलग बात है कि जब छुटियाँ आएँगी तब किसी wild life centuary में प्रकृति को देखने जायेंगे.
अपने आस पास बिखरे जीवन को नज़रंदाज़ कर देना हमारी आदत सी हो गयी है. 
प्रकृति से प्रेम करना हम भूल रहे हैं, हमें उसका  सिर्फ दोहन ही आता है.
प्रकृति से हम जुड़ेंगे तो मानो जीवन से जुड़ेंगे 
प्रकृति को प्यार कर के तो देखो, मन खुश हो जायेगा .

Monday, September 3, 2012

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा


अब खुशी है न कोई ग़म रुलाने वाला
हमने अपना लिया हर रंग ज़माने वाला

हर बे-चेहरा सी उम्मीद है चेहरा चेहरा
जिस तरफ़ देखिए आने को है आने वाला

उसको रुखसत तो किया था मुझे मालूम न था
सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

दूर के चांद को ढूंढ़ो न किसी आँचल में
ये उजाला नहीं आंगन में समाने वाला

इक मुसाफ़िर के सफ़र जैसी है सबकी दुनिया
कोई जल्दी में कोई देर में जाने वाला

निदा फ़ाज़ली






Saturday, September 1, 2012

बीते दिन ....

बीते दिन कब आने वाले!

मेरी वाणी का मधुमय स्‍वर,
विश्‍व सुनेगा कान लगाकर,
दूर गए पर मेरे उर की धड़कन को सुन पाने वाले!
बीते दिन कब आने वाले!

विश्‍व करेगा मेरा आदर,
हाथ बढ़ाकर, शीश नवाकर,
पर न खुलेंगे नेत्र प्रतीक्षा में जो रहते थे मतवाले!
बीते दिन कब आने वाले!

मुझमें है देवत्‍व जहाँ पर,
झुक जाएगा लोक वहाँ पर,
पर न मिलेंगे मेरी दुर्बलता को अब दुलरानेवाले!
बीते दिन कब आने वाले!

Sunday, August 26, 2012


हमने 
शिखरों पर जो प्यार किया 
घाटियों में उसे याद करते रहे 
फिर तलहटियों में पछताया किये 
कि
क्यों जीवन यों बर्बाद करते रहे
पर जिस रोज सहसा आ निकले 
सागर किनारे
ज्वार की पहली उत्ताल तरंग के सहारे 
पलक की झपक भर में पहचाना 
कि यह अपने को कर्ता जो माना
यही तो प्रमाद करते रहे.
—अज्ञेय

Tuesday, August 7, 2012



मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,

खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास हो
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

—अज्ञेय

Friday, July 27, 2012

खो चली त्योहारों की चमक.....


नाग पंचमी ढमक-ढम यह ढोल ढमाका ढमक ढम,
मल्लो की जब टोली निकली यह चर्चा फैली गली-गली,
कुश्ती  यह एक अजब ढंग की कुश्ती  है एक अजब रंग की 
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का 
यह दोनों दूर विदेशों में लड़ आए हैं परदेशों में 
उतरेंगे आज अखाडे में चंदन चाचा के  बाड़े  में ।





ये कविता स्कूल में पड़ी थी. तब कविता के मायने समझ नहीं आते थे पर नाग पंचमी के नगाड़े, अखाड़े में दंगल, और फिर प्रसाद मिलना ये जरूर समझ आता  था. हमारे बड़े पिताजी के घर में ही अखाडा  था.
नाग पंचमी के दिन वहां गाँव के तथाकथित पहलवान कुश्ती लड़ने जरूर आते थे.ये देख कर लगता था की हर त्यौहार की अपनी विशेषता होती है. शारीरिक व्यायाम का भी  त्यौहार है.
भारतीय परम्पराएँ  त्योहारों  से भरी पड़ी है. उस पर बारिश का मौसम तो धार्मिक त्योहारों की भरमार के साथ आता है. पर अबकी नाग पंचमी पर अजीब लगा.
इतने बड़े शहर में लगा ही नहीं की कोई त्यौहार है. बल्कि ख़बरें मिली की ढेरों सांप,  सपेरों  के पास से जब्त किये गए. सांप बुरी हालत में थे. दांत टूटे, फन कुचले, मुंह पर तार बंधे. धार्मिक श्रद्धा का   नगदीकरण. घिनोना है यह सब.
त्योहारों को मनाने के कई उद्देश्य होते होंगे. पर्यावरण की सुरक्षा, पेड़ों/जीव जंतुओं की सुरक्षा, बारिश में मौसम digestive system को support नहीं करता, इसलिए कुछ उपवास करना, और सबसे बड़ी बात की जीवन की एकरसता को ख़तम कर उसमें रंगीनियत भरना. पर  हम सब प्रगतिशील हैं हमारा इन ओल्ड fashioned  त्योहारों से अब कोई बास्ता नहीं है. celebration यानि  शोपिंग, बाहर खाना खाना, मूवी देखना, मौज मस्ती और घर में TV देखना. रीति रिवाजों, परम्पारोओं से तो कोई रिश्ता रहा    ही  नहीं, पर अब हम प्रकृति, वातावरण, समाज, अपना खुद का स्वास्थ्य ही भूल चले. चलिए ये भी सही.भागिए तेज गति से, देखें कहाँ पहुँचते हैं   

Thursday, July 19, 2012






   वक्त ठहरता ही नहीं कहीं भी
   फिसल ही जाता है रेत की तरह 
   हम बनाते रहते हैं घरोंदे लगन से
ये कौन है जो गिराकर निकल चला जाता है ......

Sunday, July 15, 2012


किस की बाट जोहें ..... 
हमारे पड़ोस में रहने वाले दुबे जी के परिवार में पति पत्नी को ही देखा है. कभी भी कोई आता जाता दिखता नहीं. हमेश moring walk  के समय पर वो मिल जाते हैं. पहले दुबे जी तेज कदम रख कर चलते थे और उनकी पत्नी धीरे धीरे फूल तोड़ते हुए जाती थी. सुनते हैं की बच्चे विदेश में रम गए हैं. साल बीत रहे हैं दुबे जी के कदम धीरे हो चले हैं. और इन दिनों एक लकड़ी के सहारे  चलते हैं.  कुछ दिनों से उनकी श्रीमती जी उनका हाथ भी पकडे रहती  हैं. और अब वे केवल सामने की रोड पर ही घूमते हैं. जब भी मेरा उनसे सामना होता है मुझे डर लगता है. उनमे से किसी एक ने भी साथ छोड़ा तो दूसरे का क्या होगा ?? नमस्ते करते ही मैं अपनी आंख नीची कर लेती हूँ . 
मेरे ऑफिस में एक महिला अधिकारी हैं. बड़ी मेहनत से ऑफिस के काम निपटाती हैं. पर चेहरे पर तनाव बना रहता है. कहती हैं की उनका १० साल का बेटा कुछ  ठीक से खाता नहीं हैं. और पढता  भी नहीं है. अब वो सुबह ५ बजे उठ जाती हैं ताकि उसे tiffin में रोज कुछ उसकी पसंद का दे सकें. शाम को भी उसकी पसंद का बना कर खिलाती हैं. फिर  उसे पढ़ाती हैं. कहती हैं कि इतना करने के बाद उनके पास न टीवी देखने का समय रहता है न ही walk करने का. फिर भी उनका मन हमेश दुखी रहता है.. कहती हैं अपने बच्चे को कम समय दे पाती हैं.  
मैं दोनों को देखती हूँ . दोनों कि जीवटता मुझे भाती है . सब को अपने हिस्से के दायित्वों का निर्वाह ठीक से करना चाहिए. पर यदि ऐसा है तो क्यों बड्ती उम्र के साथ दुबे जी और उनकी पत्नी एकदम अकेले होते जा रहें हैं???
माँ बाप करें तो ये उनका दायित्व है. बच्चे न करें तो ये उनका जीवन है... उन्हें प्रगति करनी हैं ..ये कैसे मापदंड हैं. कैसी सोच है..
लोग आंकड़े बताते हैं. social security कि बात करते हैं. economically मजबूत होने कि बात करते हैं. सरकार से योजनायें    बनाने उन्हें ठीक से चलवाने कि बात करते हैं. pension कि बात करते हैं..
क्या यही नियति है. क्या इसे ही प्रगति कहते हैं. क्या भारतीय परिवेश में  ऐसे ही  परिवार बसते हैं. 
हमारे यहाँ तो बच्चे पिता के सामने मौन रहकर उन्हें सम्मान देते हैं. दादा और पोते का सीखने सिखाने का रिश्ता होता है. 
बड़े लोग परिवार का ध्यान रखते हैं. और परिवार बड़ों का.
old age home  हमारी संस्कृति नहीं है. हम इतने खुदगर्ज तो नहीं कि अपनी ही  जड़ों को काट फेकें.  
जरा सी आज़ादी, थोड़ी सी प्रगति, भौतिक संसाधनों की गिधता, परिवार को तोड़ रही है.
कभी किसी माँ ने नहीं कहा होगा कि परिवार कि स्थिति ठीक नहीं है इसलिए बेटे तुम घर से दूर रहो.. कभी ये भी नहीं कहा होगा कि तुम पूरा घर गन्दा कर देतो हो इसलिए किसी कोने में ही रहो..
फिर ये सब कहाँ से हम ने सीख लिया!!
रिश्तो की मिठास खटाश में कैसे बदल रही है..
कारण अलग हो सकते हैं, परिवेश अलग हो सकते हैं , परिस्थितिया अलग हो सकती है पर टूटता तो इन्सान ही है..
कुछ तो करना ही होगा.. शुरुआत खुद से करनी होगी..
ये जरुरी है, वर्ना रिश्तों से विश्वास ही उठ जायेगा!!!! 

Saturday, July 14, 2012














शीशा देने वाला



जब भी मैं
रोया करता
माँ कहती -
यह लो शीशा 
देखो इसमें
कैसी तो लगती है
रोनी सूरत अपनी
अनदेखे ही शीशा 
मैं सोच-सोचकर
अपनी रोनी सूरत
हँसने लगता।


एक बार रोई थी माँ भी
नानी के मरने पर
फिर मरते दम तक
माँ को मैंने खुलकर हँसते
कभी नहीं देखा।
माँ के जीवन में शायद
शीशा देने वाला
अब काई नहीं था।


सबके जीवन में ऐसे ही
खो जाता होगा
कोई शीशा देने वाला।


मुनि क्षमासागर

Saturday, July 7, 2012

बारिश के आने का तो हर कोई इंतजार करता है. लगता है छम छम करते आएगी. 
खूब गिरेगी. पहले धरती को, पेड़ों को, नदियों  को और फिर हमारे मन को भिगो देगी.
पर अभी तक आई नहीं.जाने क्यों रूठी हुई है कहाँ बैठी है?
 हम भी जानते हैं ज्यादा देर नहीं रूठेगी. आ ही जाएगी. 
पर इस बार उसके आने के पहले बड़ी आंधी आई. सब कुछ हिला दिया. 
कहीं होर्डिंग गिरे तो कहीं खम्बे. सैकड़ो पेड़ भी जमीं से जा मिले.
मोटे मोटे तने के पेड़ ऐसे कैसे गिर सकते हैं? पता नहीं आदमी ने उसकी जड़ों से क्या कह दिया
कि उनने साथ ही छोड़ दिया. अब  गिरे हुए पेड़ों से नाराज है आदमी.
उनके गिरने से सड़क भर गयी. आना जाना बाधित हो गया. 
घंटो बिजली ही न रही. न ठंडी हवा, न TV , 
मोबाइल भी discharge हो  गए. मानो जीवन की गति ही रुक गयी. 
नाराज है आदमी. उसने दूसरे ही रोज अपने आस पास के पेड़ों  का इलाज शुरू कर दिया .....
क्या कहूं पेड़ तुम तो पहले ही गायब हो रहे थे और अब ... अब तो सब तुमसे नाराज़ हो चले..
तो क्या तुम चले ही जाओगे ???
रुको!!! तुम्हे ही रोक सकती हूँ ... आदमी को नहीं... वो नहीं सुनते.. 
तुम तो सुनो तुम चले जाओगे तो जीवन से संगीत ही चला जायेगा
चिड़िया कहाँ बैठेगी...कहाँ गाना गाएगी ... गर्मी में तुम्हारी छाया कहाँ से आएगी 
बारिश से बच कर कहाँ खड़े होएंगे....  मंद मंद हवा कहाँ से होके गुजरेगी 
पानी को कौन रोकेगा ...रुक जाओ तुम ...तुम्हे तो मैं समझा सकती हूँ पर 
आदमी को कैसे समझाएं ....

Friday, June 29, 2012



बारिश 

चिड़िया
भीग जाती है
जब बारिश  आती है
नदी
भर जाती है
जब बारिश  आती है
धरती
गीली हो जाती है 

पर बहुत मुश्किल है
इस तरह 
आदमी का
भीगना और
भर पाना

आदमी के पास
बचने का 
उपाय है न!

मुनि क्षमासागर 

Monday, April 23, 2012

   खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
        डूबा सागर-तीरे।

धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
        मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
        साथी लगा बुलाने।

तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
        जागी धीरे-धीरे।

अज्ञेय

Saturday, April 21, 2012

दीप उनका
रौशनी उनकी
मै जल रहा हूँ

रास्ते उनके
सहारा  भी उनका 
मैं चल रहा हूँ

प्राण उनके 
हर साँस उनकी
मैं जी रहा हूँ
- मुनि क्षमासागर  

Wednesday, March 21, 2012


ठण्ड आखिर चली ही गयी. अबके बहुत दिन रही. कोई बहुत दिन रह जाये तो अच्छा नहीं लगता.
पर कभी कभी बहुत भाने भी लगता है. बहरहाल ठण्ड अभी गयी ही थी कि गर्मी आ गयी.
और पतझर...
यह खुशनुमा मौसम कहीं नज़र ही नहीं आया..
पत्तो का गिरना. जमीन सूखे पत्तो से भर जाती
सूखती सी हवा धीरे धीरे..
चलिए न सही.. अगली साल इंतजार करेंगे...
अब समय है पुराने पाठ को दुहराने का
पानी बर्बाद न करेंगे न होने देंगे

Saturday, March 17, 2012

इन दिनों एक हत्याकांड रोज़ अख़बारों में बड़ी जगह पाता है. पता नहीं सच्चाई क्या है. पता नहीं फैसला क्या होगा. पर ढेरो प्रशन चिन्ह हमारे वर्तमान के जीवन जीने के तरीके पर लग रहे है.
जीवन में असीम उंचाइयों को पाना हर दिल की ख्वाहिश हो सकती है और होना भी चाहिए. सब को आगे बढना चाहिए. पर क्या यह जरुरी नहीं की मंजिल से भी बेहतर, श्रेष्ट रास्ता हो.
क्या सब कुछ खो कर कुछ भी पाना उपलब्धि है. क्या इसे पाना कहते हैं. फिर क्यों बच्चन जी ने कहा होगा
' वृक्ष हों भले खड़े
हो घने हों बड़े
एक पत्र छाह भी
मांग मत
मांग मत
अग्नि पथ"

अपने ही श्वेद से सिंचित रास्ते के पार ही स्वर्णिम मंजिल हो सकती है.
महत्वाकांक्षाओं को लगाम लगानी चाहिए. वर्ना यह जाने कहाँ पहुंचा देंगी.
एक और बात, पद प्रतिष्टा का उपयोग समाज के हित में हो तो बेहतर है. निजी हितों में करने से तो विसंगति होनी ही है.

Friday, March 16, 2012


मैंने पूछा
चिड़िया से
कि आकाश
असीम है
क्या तुम्हे अपने
खो जाने का
भय नहीं लगता
चिड़िया कहती है
कि वह
अपने घर
लौटना जानती है