Sunday, August 26, 2012


हमने 
शिखरों पर जो प्यार किया 
घाटियों में उसे याद करते रहे 
फिर तलहटियों में पछताया किये 
कि
क्यों जीवन यों बर्बाद करते रहे
पर जिस रोज सहसा आ निकले 
सागर किनारे
ज्वार की पहली उत्ताल तरंग के सहारे 
पलक की झपक भर में पहचाना 
कि यह अपने को कर्ता जो माना
यही तो प्रमाद करते रहे.
—अज्ञेय

Tuesday, August 7, 2012



मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,

खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास हो
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

—अज्ञेय