Wednesday, March 21, 2012


ठण्ड आखिर चली ही गयी. अबके बहुत दिन रही. कोई बहुत दिन रह जाये तो अच्छा नहीं लगता.
पर कभी कभी बहुत भाने भी लगता है. बहरहाल ठण्ड अभी गयी ही थी कि गर्मी आ गयी.
और पतझर...
यह खुशनुमा मौसम कहीं नज़र ही नहीं आया..
पत्तो का गिरना. जमीन सूखे पत्तो से भर जाती
सूखती सी हवा धीरे धीरे..
चलिए न सही.. अगली साल इंतजार करेंगे...
अब समय है पुराने पाठ को दुहराने का
पानी बर्बाद न करेंगे न होने देंगे

Saturday, March 17, 2012

इन दिनों एक हत्याकांड रोज़ अख़बारों में बड़ी जगह पाता है. पता नहीं सच्चाई क्या है. पता नहीं फैसला क्या होगा. पर ढेरो प्रशन चिन्ह हमारे वर्तमान के जीवन जीने के तरीके पर लग रहे है.
जीवन में असीम उंचाइयों को पाना हर दिल की ख्वाहिश हो सकती है और होना भी चाहिए. सब को आगे बढना चाहिए. पर क्या यह जरुरी नहीं की मंजिल से भी बेहतर, श्रेष्ट रास्ता हो.
क्या सब कुछ खो कर कुछ भी पाना उपलब्धि है. क्या इसे पाना कहते हैं. फिर क्यों बच्चन जी ने कहा होगा
' वृक्ष हों भले खड़े
हो घने हों बड़े
एक पत्र छाह भी
मांग मत
मांग मत
अग्नि पथ"

अपने ही श्वेद से सिंचित रास्ते के पार ही स्वर्णिम मंजिल हो सकती है.
महत्वाकांक्षाओं को लगाम लगानी चाहिए. वर्ना यह जाने कहाँ पहुंचा देंगी.
एक और बात, पद प्रतिष्टा का उपयोग समाज के हित में हो तो बेहतर है. निजी हितों में करने से तो विसंगति होनी ही है.

Friday, March 16, 2012


मैंने पूछा
चिड़िया से
कि आकाश
असीम है
क्या तुम्हे अपने
खो जाने का
भय नहीं लगता
चिड़िया कहती है
कि वह
अपने घर
लौटना जानती है