Sunday, July 15, 2012


किस की बाट जोहें ..... 
हमारे पड़ोस में रहने वाले दुबे जी के परिवार में पति पत्नी को ही देखा है. कभी भी कोई आता जाता दिखता नहीं. हमेश moring walk  के समय पर वो मिल जाते हैं. पहले दुबे जी तेज कदम रख कर चलते थे और उनकी पत्नी धीरे धीरे फूल तोड़ते हुए जाती थी. सुनते हैं की बच्चे विदेश में रम गए हैं. साल बीत रहे हैं दुबे जी के कदम धीरे हो चले हैं. और इन दिनों एक लकड़ी के सहारे  चलते हैं.  कुछ दिनों से उनकी श्रीमती जी उनका हाथ भी पकडे रहती  हैं. और अब वे केवल सामने की रोड पर ही घूमते हैं. जब भी मेरा उनसे सामना होता है मुझे डर लगता है. उनमे से किसी एक ने भी साथ छोड़ा तो दूसरे का क्या होगा ?? नमस्ते करते ही मैं अपनी आंख नीची कर लेती हूँ . 
मेरे ऑफिस में एक महिला अधिकारी हैं. बड़ी मेहनत से ऑफिस के काम निपटाती हैं. पर चेहरे पर तनाव बना रहता है. कहती हैं की उनका १० साल का बेटा कुछ  ठीक से खाता नहीं हैं. और पढता  भी नहीं है. अब वो सुबह ५ बजे उठ जाती हैं ताकि उसे tiffin में रोज कुछ उसकी पसंद का दे सकें. शाम को भी उसकी पसंद का बना कर खिलाती हैं. फिर  उसे पढ़ाती हैं. कहती हैं कि इतना करने के बाद उनके पास न टीवी देखने का समय रहता है न ही walk करने का. फिर भी उनका मन हमेश दुखी रहता है.. कहती हैं अपने बच्चे को कम समय दे पाती हैं.  
मैं दोनों को देखती हूँ . दोनों कि जीवटता मुझे भाती है . सब को अपने हिस्से के दायित्वों का निर्वाह ठीक से करना चाहिए. पर यदि ऐसा है तो क्यों बड्ती उम्र के साथ दुबे जी और उनकी पत्नी एकदम अकेले होते जा रहें हैं???
माँ बाप करें तो ये उनका दायित्व है. बच्चे न करें तो ये उनका जीवन है... उन्हें प्रगति करनी हैं ..ये कैसे मापदंड हैं. कैसी सोच है..
लोग आंकड़े बताते हैं. social security कि बात करते हैं. economically मजबूत होने कि बात करते हैं. सरकार से योजनायें    बनाने उन्हें ठीक से चलवाने कि बात करते हैं. pension कि बात करते हैं..
क्या यही नियति है. क्या इसे ही प्रगति कहते हैं. क्या भारतीय परिवेश में  ऐसे ही  परिवार बसते हैं. 
हमारे यहाँ तो बच्चे पिता के सामने मौन रहकर उन्हें सम्मान देते हैं. दादा और पोते का सीखने सिखाने का रिश्ता होता है. 
बड़े लोग परिवार का ध्यान रखते हैं. और परिवार बड़ों का.
old age home  हमारी संस्कृति नहीं है. हम इतने खुदगर्ज तो नहीं कि अपनी ही  जड़ों को काट फेकें.  
जरा सी आज़ादी, थोड़ी सी प्रगति, भौतिक संसाधनों की गिधता, परिवार को तोड़ रही है.
कभी किसी माँ ने नहीं कहा होगा कि परिवार कि स्थिति ठीक नहीं है इसलिए बेटे तुम घर से दूर रहो.. कभी ये भी नहीं कहा होगा कि तुम पूरा घर गन्दा कर देतो हो इसलिए किसी कोने में ही रहो..
फिर ये सब कहाँ से हम ने सीख लिया!!
रिश्तो की मिठास खटाश में कैसे बदल रही है..
कारण अलग हो सकते हैं, परिवेश अलग हो सकते हैं , परिस्थितिया अलग हो सकती है पर टूटता तो इन्सान ही है..
कुछ तो करना ही होगा.. शुरुआत खुद से करनी होगी..
ये जरुरी है, वर्ना रिश्तों से विश्वास ही उठ जायेगा!!!! 

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