Friday, July 27, 2012

खो चली त्योहारों की चमक.....


नाग पंचमी ढमक-ढम यह ढोल ढमाका ढमक ढम,
मल्लो की जब टोली निकली यह चर्चा फैली गली-गली,
कुश्ती  यह एक अजब ढंग की कुश्ती  है एक अजब रंग की 
यह पहलवान अम्बाले का, यह पहलवान पटियाले का 
यह दोनों दूर विदेशों में लड़ आए हैं परदेशों में 
उतरेंगे आज अखाडे में चंदन चाचा के  बाड़े  में ।





ये कविता स्कूल में पड़ी थी. तब कविता के मायने समझ नहीं आते थे पर नाग पंचमी के नगाड़े, अखाड़े में दंगल, और फिर प्रसाद मिलना ये जरूर समझ आता  था. हमारे बड़े पिताजी के घर में ही अखाडा  था.
नाग पंचमी के दिन वहां गाँव के तथाकथित पहलवान कुश्ती लड़ने जरूर आते थे.ये देख कर लगता था की हर त्यौहार की अपनी विशेषता होती है. शारीरिक व्यायाम का भी  त्यौहार है.
भारतीय परम्पराएँ  त्योहारों  से भरी पड़ी है. उस पर बारिश का मौसम तो धार्मिक त्योहारों की भरमार के साथ आता है. पर अबकी नाग पंचमी पर अजीब लगा.
इतने बड़े शहर में लगा ही नहीं की कोई त्यौहार है. बल्कि ख़बरें मिली की ढेरों सांप,  सपेरों  के पास से जब्त किये गए. सांप बुरी हालत में थे. दांत टूटे, फन कुचले, मुंह पर तार बंधे. धार्मिक श्रद्धा का   नगदीकरण. घिनोना है यह सब.
त्योहारों को मनाने के कई उद्देश्य होते होंगे. पर्यावरण की सुरक्षा, पेड़ों/जीव जंतुओं की सुरक्षा, बारिश में मौसम digestive system को support नहीं करता, इसलिए कुछ उपवास करना, और सबसे बड़ी बात की जीवन की एकरसता को ख़तम कर उसमें रंगीनियत भरना. पर  हम सब प्रगतिशील हैं हमारा इन ओल्ड fashioned  त्योहारों से अब कोई बास्ता नहीं है. celebration यानि  शोपिंग, बाहर खाना खाना, मूवी देखना, मौज मस्ती और घर में TV देखना. रीति रिवाजों, परम्पारोओं से तो कोई रिश्ता रहा    ही  नहीं, पर अब हम प्रकृति, वातावरण, समाज, अपना खुद का स्वास्थ्य ही भूल चले. चलिए ये भी सही.भागिए तेज गति से, देखें कहाँ पहुँचते हैं   

Thursday, July 19, 2012






   वक्त ठहरता ही नहीं कहीं भी
   फिसल ही जाता है रेत की तरह 
   हम बनाते रहते हैं घरोंदे लगन से
ये कौन है जो गिराकर निकल चला जाता है ......

Sunday, July 15, 2012


किस की बाट जोहें ..... 
हमारे पड़ोस में रहने वाले दुबे जी के परिवार में पति पत्नी को ही देखा है. कभी भी कोई आता जाता दिखता नहीं. हमेश moring walk  के समय पर वो मिल जाते हैं. पहले दुबे जी तेज कदम रख कर चलते थे और उनकी पत्नी धीरे धीरे फूल तोड़ते हुए जाती थी. सुनते हैं की बच्चे विदेश में रम गए हैं. साल बीत रहे हैं दुबे जी के कदम धीरे हो चले हैं. और इन दिनों एक लकड़ी के सहारे  चलते हैं.  कुछ दिनों से उनकी श्रीमती जी उनका हाथ भी पकडे रहती  हैं. और अब वे केवल सामने की रोड पर ही घूमते हैं. जब भी मेरा उनसे सामना होता है मुझे डर लगता है. उनमे से किसी एक ने भी साथ छोड़ा तो दूसरे का क्या होगा ?? नमस्ते करते ही मैं अपनी आंख नीची कर लेती हूँ . 
मेरे ऑफिस में एक महिला अधिकारी हैं. बड़ी मेहनत से ऑफिस के काम निपटाती हैं. पर चेहरे पर तनाव बना रहता है. कहती हैं की उनका १० साल का बेटा कुछ  ठीक से खाता नहीं हैं. और पढता  भी नहीं है. अब वो सुबह ५ बजे उठ जाती हैं ताकि उसे tiffin में रोज कुछ उसकी पसंद का दे सकें. शाम को भी उसकी पसंद का बना कर खिलाती हैं. फिर  उसे पढ़ाती हैं. कहती हैं कि इतना करने के बाद उनके पास न टीवी देखने का समय रहता है न ही walk करने का. फिर भी उनका मन हमेश दुखी रहता है.. कहती हैं अपने बच्चे को कम समय दे पाती हैं.  
मैं दोनों को देखती हूँ . दोनों कि जीवटता मुझे भाती है . सब को अपने हिस्से के दायित्वों का निर्वाह ठीक से करना चाहिए. पर यदि ऐसा है तो क्यों बड्ती उम्र के साथ दुबे जी और उनकी पत्नी एकदम अकेले होते जा रहें हैं???
माँ बाप करें तो ये उनका दायित्व है. बच्चे न करें तो ये उनका जीवन है... उन्हें प्रगति करनी हैं ..ये कैसे मापदंड हैं. कैसी सोच है..
लोग आंकड़े बताते हैं. social security कि बात करते हैं. economically मजबूत होने कि बात करते हैं. सरकार से योजनायें    बनाने उन्हें ठीक से चलवाने कि बात करते हैं. pension कि बात करते हैं..
क्या यही नियति है. क्या इसे ही प्रगति कहते हैं. क्या भारतीय परिवेश में  ऐसे ही  परिवार बसते हैं. 
हमारे यहाँ तो बच्चे पिता के सामने मौन रहकर उन्हें सम्मान देते हैं. दादा और पोते का सीखने सिखाने का रिश्ता होता है. 
बड़े लोग परिवार का ध्यान रखते हैं. और परिवार बड़ों का.
old age home  हमारी संस्कृति नहीं है. हम इतने खुदगर्ज तो नहीं कि अपनी ही  जड़ों को काट फेकें.  
जरा सी आज़ादी, थोड़ी सी प्रगति, भौतिक संसाधनों की गिधता, परिवार को तोड़ रही है.
कभी किसी माँ ने नहीं कहा होगा कि परिवार कि स्थिति ठीक नहीं है इसलिए बेटे तुम घर से दूर रहो.. कभी ये भी नहीं कहा होगा कि तुम पूरा घर गन्दा कर देतो हो इसलिए किसी कोने में ही रहो..
फिर ये सब कहाँ से हम ने सीख लिया!!
रिश्तो की मिठास खटाश में कैसे बदल रही है..
कारण अलग हो सकते हैं, परिवेश अलग हो सकते हैं , परिस्थितिया अलग हो सकती है पर टूटता तो इन्सान ही है..
कुछ तो करना ही होगा.. शुरुआत खुद से करनी होगी..
ये जरुरी है, वर्ना रिश्तों से विश्वास ही उठ जायेगा!!!! 

Saturday, July 14, 2012














शीशा देने वाला



जब भी मैं
रोया करता
माँ कहती -
यह लो शीशा 
देखो इसमें
कैसी तो लगती है
रोनी सूरत अपनी
अनदेखे ही शीशा 
मैं सोच-सोचकर
अपनी रोनी सूरत
हँसने लगता।


एक बार रोई थी माँ भी
नानी के मरने पर
फिर मरते दम तक
माँ को मैंने खुलकर हँसते
कभी नहीं देखा।
माँ के जीवन में शायद
शीशा देने वाला
अब काई नहीं था।


सबके जीवन में ऐसे ही
खो जाता होगा
कोई शीशा देने वाला।


मुनि क्षमासागर

Saturday, July 7, 2012

बारिश के आने का तो हर कोई इंतजार करता है. लगता है छम छम करते आएगी. 
खूब गिरेगी. पहले धरती को, पेड़ों को, नदियों  को और फिर हमारे मन को भिगो देगी.
पर अभी तक आई नहीं.जाने क्यों रूठी हुई है कहाँ बैठी है?
 हम भी जानते हैं ज्यादा देर नहीं रूठेगी. आ ही जाएगी. 
पर इस बार उसके आने के पहले बड़ी आंधी आई. सब कुछ हिला दिया. 
कहीं होर्डिंग गिरे तो कहीं खम्बे. सैकड़ो पेड़ भी जमीं से जा मिले.
मोटे मोटे तने के पेड़ ऐसे कैसे गिर सकते हैं? पता नहीं आदमी ने उसकी जड़ों से क्या कह दिया
कि उनने साथ ही छोड़ दिया. अब  गिरे हुए पेड़ों से नाराज है आदमी.
उनके गिरने से सड़क भर गयी. आना जाना बाधित हो गया. 
घंटो बिजली ही न रही. न ठंडी हवा, न TV , 
मोबाइल भी discharge हो  गए. मानो जीवन की गति ही रुक गयी. 
नाराज है आदमी. उसने दूसरे ही रोज अपने आस पास के पेड़ों  का इलाज शुरू कर दिया .....
क्या कहूं पेड़ तुम तो पहले ही गायब हो रहे थे और अब ... अब तो सब तुमसे नाराज़ हो चले..
तो क्या तुम चले ही जाओगे ???
रुको!!! तुम्हे ही रोक सकती हूँ ... आदमी को नहीं... वो नहीं सुनते.. 
तुम तो सुनो तुम चले जाओगे तो जीवन से संगीत ही चला जायेगा
चिड़िया कहाँ बैठेगी...कहाँ गाना गाएगी ... गर्मी में तुम्हारी छाया कहाँ से आएगी 
बारिश से बच कर कहाँ खड़े होएंगे....  मंद मंद हवा कहाँ से होके गुजरेगी 
पानी को कौन रोकेगा ...रुक जाओ तुम ...तुम्हे तो मैं समझा सकती हूँ पर 
आदमी को कैसे समझाएं ....