Tuesday, August 7, 2012



मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

शहर के दूर के तनाव-दबाव कोई सह भी ले,

पर यह अपने ही रचे एकांत का दबाब सहा कैसे जाए!

नील आकाश, तैरते-से मेघ के टुकड़े,

खुली घासों में दौड़ती मेघ-छायाएँ,
पहाड़ी नदीः पारदर्श पानी,
धूप-धुले तल के रंगारग पत्थर,
सब देख बहुत गहरे कहीं जो उठे,
वह कहूँ भी तो सुनने को कोई पास हो
इसी पर जो जी में उठे वह कहा कैसे जाए!

मन बहुत सोचता है कि उदास हो

पर उदासी के बिना रहा कैसे जाए?

—अज्ञेय

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