Thursday, October 4, 2012

संवेदनाओं का बाजारीकरण



मेरा पति बहुत शराब पीता है. फिर कभी कभी मुझे मारता भी  है. मैं अपने बेटे के साथ अब अपनी माँ के साथ रहती हूँ ....कहते कहते मंच पर वह महिला रोने लगती है..सामने hot sheet पर Mr Angry Young Man  बैठे हैं.. देखते रहते हैं उसको.. दर्शक उस महिला के दुःख से सहभागी होतें  हैं शायद ... और अगले ही पल कार्यक्रम आगे बड़ जाता है..इतना ही नहीं कार्यक्रम आने के पहले रोज़ दसिओं बार ये दृश्य परदे पर आता है. श्रोताओं  को रट जाता है...  इन दिनों छोटे परदे पर आने वाले life shows  में आये दिन ऐसे दृश्य देखे जा सकते हैं.. बहुत कुछ कर दिखाने वाला, बड़ी प्रतिभा का धनी किसी न किसी tragedy का शिकार होता है. उसके बस रोने की वजह होती है और वह मंच पर ही बड़ी अदा से अपने आसूं को पोछता है...बात यह नहीं की दुःख नहीं है. दुःख सब को है... दुःख कहीं भी हो सकता है..पर क्या उसका प्रगटीकरण इतना आसान है?  क्या आप कभी भी कहीं भी रो  देते हैं... मन के कोने में छुपी पीड़ा या टीस को बाहर लाने में खासी मेहनत लगती है... कोई बहुत अपना, जब स्नेह से भर कर पास बैठता है तब जा कर कहीं बांध टूटता है.. तब इन्सान कह कर रो कर हल्का हो लेता है और उसे फिर दर्द को सहने की ताकत आती है. पता नहीं इन shows के होस्ट को क्या जादू आता है कि ये किसी को भी रुला देते हैं . वाह रे!  संवेदनाओं का बाजारीकरण...अपना शो बढ़िया बनाने के लिए लोगों के ग़मों को ही बेच  डालते हैं.  खरीद फरोक्त कि इस दुनिया में इतनी तेजी से विकास हो रहा है कि मानव मन कि कोमल भावनाओ का मूल्य ही नहीं रहा..हमें तो ये पता था...
अच्छा सा कोई   मौसम तन्हा सा कोई आलम 
हर वक़्त का रोना तो वे वक़्त का रोना है.